Friday, November 11

पिता और गुरु

आपने सुना होगा और अगर नहीं सुना तो अब सुन लीजिये ...
  जब भी हम किसी चीज़ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते है तो उसे काफी अच्छे से पैक करके ले जाते है.
केकड़े बहुत सी चीज़ों में काम में लिए जाते है इसलिए वो बहुत दूर-दूर  से एक जगह से दूसरी जगह ले जाए जाते है. ज्यादातर उन्हें पानी के जहाज में लाया जाता है. पर जिस पेटी में उन्हें रखा जाता है उस पर "ढ़क्कन " नहीं लगाया जाता क्यूंकि जब भी कोई केकड़ा पेटी से बाहर निकलने की कोशिश करता है तो बाकी के चार केकड़े उसकी टांग खींच लेते है और उसे ऊपर चढ़ने ही नहीं देते ... ऐसा हर केकड़े के साथ बारी-बारी से होता है इसलिए कोई भी केकड़ा पेटी से बाहर नहीं निकल पाता और ढ़क्कन लगाने की जरूरत ही नही पड़ती....
  
  ठीक ऐसा ही हमारे साथ भी होता है जब भी कोई व्यक्ति आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो केकड़ों की तरह ही हमारे आस पास के लोग हमसे चिढ़कर हमारी टांग खीचने लगते हैं. ख़ुद तरक्की करे या न करे पर किसी दुसरे को बनता हुआ देख बाकी के चार बर्दाश्त नही कर पाते और किसी न किसी तरह से उस व्यक्ति को नीचें गिराने  की कोशिश लगातार करते रहते है. 
   
बावजूद इसके दो लोग ऐसे है जो हमें अपने से भी ज्यादा ऊँचा उढ़ता हुआ देखना चाहते है और हमारी कामयाबी से सबसे ज्यादा खुश होते हैं.
     वो दो लोग हैं 
...  पिता और गुरु  ... father and teacher...  
 MS-738

Saturday, November 5

छोटी सी जिंदगी

एक छोटा सा शांत कमरा जिसमें एक बेड  था. वह वही लेटे थे कपकपाते हाथ और दूसरों को पहचानने की कोशिश वह  कर रहे थे. जब मुझे उन्होंने देखा तो न चाहते हुए भी रो पड़े थे . मुझे यकीन ही नही था कि जिंदगी इतने कम समय में इतनी बदल सकती है. अभी कुछ ही दिनों पहले तो वह रोज की तरह अपने दोस्तों के साथ मंदिर जाया करते थे और आज केवल दो ही दिनों में उनकी ये हालत .... जब मैं हॉस्पिटल से घर आई तो दादा जी का वो मुरझाया चेहरा बार बार मुझे याद आ रहा था....और वो प्यारी सी ९ साल की लड़की. वो  दादाजी के साथ वाले बेड पर ही लेटी थी. उसे एक भयावक बेईजाज बीमारी थी लाख कोशिश के बावजूद भी मैक्स हॉस्पिटल के सर्वश्रेष्ठ डोक्टर भी कुछ नही कर पा रहे थे .....और वह कुछ ही दिनों की मेहमान थी ......ऊपर वाला भी कभी-कभी बहुत  नाइंसाफी करता है उस बच्ची  ने क्या देखा होगा अपनी इस छोटी सी जिंदगी में ..कुछ भी तो नहीं ...      तब मुझे एहसास हुआ  कि जिंदगी कब किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दे ये किसे पता ?

इसलिए जिंदगी के इस छोटे से सफ़र के हर एक पल को जियो.... खुश रहो.... बिंदास रहो....सबसे प्यार करो और  दूसरों की हेल्प करो, दूसरों के काम आओ और ऊपर वाले का शुक्रियादा करो ....इस प्यारी सी खूबसूरत जिंदगी देने के लिए 
क्योंकि .....

हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी ...छाव है कहीं ...कहीं  है धूप जिंदगी हर पल यहाँ ......जीभर जियो.... जो है समा कल हो ना हो .....

सोच क्या हैं ? ? ?

 सोच क्या है ? यह सोच कर भी क्या फायदा ....अफ़सोस होता है कभी खुद की तो कभी दूसरों की सोच पर. 
परिवर्तन प्रकृति का नियम है. प्रकृति के इसी नियम  के चलते आज हमारे रहन- सहन और भाषा आदि में इतना बदलाव आया है...तो फिर अब तक हमारी सोच क्यों नही बदली ? ? 
   सभी का कहना है कि शिक्षा मानव के  मानसिक स्तर का विकास करती है उसे दूसरों से परे एक समझदार इंसान की श्रेणी में खड़ा करती है. परन्तु ऐसा देखने को नही मिलता. मैंने कई बार उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके ऐसे लोगों को देखा है जो रहन सहन और सुख सुविधाओ में सबसे आगे है लेकिन उनकी सोच आज इक्कीसवी सदी में भी  बहुत छोटी और तुच्छ है. आज भी लोग जातिवाद में विश्वास रखते है आज भी लोग छुआछूत करते है और ऐसी सामाजिक बुराइयों  को बढावा देते हैं. 
     हम टेक्नोलोजी में भले ही बहुत  आगे निकल गये हो  पर सबसे महत्वपूर्ण इस सोच का विकास कौन करेगा? ? 
वैसे तो हम श्री राम के आदर्शों पर चलते है तो  फिर हम ये क्यूँ  भूल  जाते है कि भगवान् श्री राम ने भी सबरी के जूठे बैर खाए थे. जब भगवान् अपने बच्चों में कोई फर्क नही करते तो  हम एक दूसरे में अंतर क्यूँ रखते हैं  क्या  हम भगवान् से भी बड़े है ? ?
     जबकि हमे चाहिए कि हम अपने घर परिवार में  अपने आस पास सबको  ये बताएं  कि इस दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग  हैं एक अच्छे और दूसरे बुरे.....लेकिन नहीं हमें बचपन से ही ये तालीम दी जाती है कि हम दुसरो से श्रेष्ठ हैं हम .....इस जाति  के हैं हम ये हैं .....हम वो हैं .... 
      मेरा तो मानना हैं कि हम सभी को अपने नाम के बाद सर नेम नहीं लगाना चाहिए क्योंकि इससे एक दुसरें  में  भिन्नता आती है हमे तो बस एक अच्छा इंसान बनने कि कोशिश करनी चाहिए.......
        और अपनी पहचान इस रूप में स्थापित करनी चाहिए ..

 मैं एक भारतीय हूँ और इंसानीयत है मेरा धर्म.....  
     
          

Sunday, March 13

ऐ प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम

       क्लियोपेट्रा और मार्क एंटनी की प्रेम कथा को शायद कुछ ही लोग जानते होंगे. इन दोनों की कहानी इतिहास की सबसे दुखद कहानी थी. क्लियोपेट्रा मिस्र की रानी  थी और एंटनी रोम का राजा. इन दोनों को पहली नजर में ही प्यार हो गया था, वो कहते हैं न की प्यार की कोई उम्र नहीं होती ये कही भी, किसी से भी, किसी भी उम्र में हो सकता है.
 इन दो शक्तिशाली मुखियाओं के प्रेम ने उस समय की राजनीति पर गहरा असर डाला. इससे मिस्र की स्थिति मजबूत हो गई, लेकिन रोम में ही एंटनी का विरोध होने लगा.  एंटनी क्लियोपेट्रा के प्रेम में पागल था. उसने अपनी पत्नी ओक्टोविया को छोड़ दिया और क्लियोपेट्रा से शादी कर ली. इससे नाराज हो कर ओक्टोविया के भाई ने मिस्र पर हमला कर दिया. जिसमें  रोम ने भी उसका पूरा साथ दिया. इसके बाद मिस्र और रोम में भयंकर युद्ध शुरू हो गया. एक दिन के बाद ही एंटनी को ख़बर मिली कि क्लियोपेट्रा कि हत्या हो गई है. एंटनी को बहुत दुःख हुआ, उसनें तुरंत ख़ुद के तलवार भोंक ली.  थोड़ी देर बाद जब क्लियोपेट्रा को इसका पता चला तो वह भी इसे सह न सकी  और आत्महत्या कर ली. इस करुण  प्रेम कथा पर आज तक नाटक और फिल्में लिखी जाती हैं.

Wednesday, March 2

अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे सत्यजीत रे

पाथेर पांचाली, देवी, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी जैसी लोकप्रिय फिल्में देने वाले सत्यजीत रे अपने समय से बहुत आगे थे। उनकी सोच और नजरिया एक आम इंसान से बहुत ही भिन्न था। देश को ये अमर फिल्में देने वाले सत्यजीत दा कभी किताबों के आवरण (कवर) बनाया करते थे यह बात कम ही लोग जानते होंगे।
         
दो मई 1921 को कलकत्ता में जन्मे सत्यजीत रे ने शुरुआत में विज्ञापन एजेंसी में बतौर जूनियर विज्युलाइजर काम शुरु किया था। इसी दौरान उन्होंने कुछ बेहतरीन किताबों के आवरण बनाए जिनमें से मुख्य थी जिम कार्बेट की मैन इटर्स आफ कुमायूं और जवाहर लाल नेहरु की डिस्कवरी आफ इंडिया। तब कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा। सत्यजीत रे न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज का सम्मान भी शामिल है। पाथेर पांचाली को बनाने के लिए सत्यजीत रे को काफी संघर्ष करना पड़ा यहां तक कि अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे पर इस फिल्म की सफलता ने उनके सारे कष्ट दूर कर दिये।
सत्यजीत दा को परिभाषित करने के लिए महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरासोवा का यह कथन काफी है यदि आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी हैं तो इसका मतलब आप दुनिया में बिना सूरज या चांद देखे रह रहे हैं। अपने जमाने की प्रसिद्ध हीरोइन वहीदा रहमान कहती हैं कि उनका नजरिया बिल्कुल साफ था। वे अन्य फिल्मकारों से बिलकुल जुदा थे। उन्हें पता था कि किस कलाकार से किस तरह का काम चाहिए। निर्देशक जहनू बरुआ कहते हैं- रे भारत में पहले फिल्म निर्माता थे जिन्होंने विश्व सिनेमा की अवधारणा का अनुसरण किया। भारतीय सिनेमा में आधुनिकतावाद लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी फिल्में हमेशा यथार्थ पर केन्द्रित रहीं और उनके चरित्रों को हमेशा आम आदमी के साथ जोड़ा जा सकता है। उन्होंने कहा कि पाथेर पांचाली, अपूर संसार तथा अपराजितो में सत्यजीत रे ने जिस सादगी से ग्रामीण जनजीवन का चित्रण किया है वह अद्भुत है। चारुलता में उन्होंने मात्र सात मिनट के संवाद में चारु के एकाकीपन की गहराई को छू लिया है। उन्होंने अपनी हर फिल्म इसी संवेदनशीलता के साथ गढ़ी। शर्मिला टेगौर के मुताबिक सत्यजीत रे बड़ी आसानी से मुश्किल से मुश्किल काम करवा लेते थे। अर्मत्य सेन के मुताबिक रे विचारों का आनंद लेना और उनसे सीखना जानते थे। यही उनकी विशेषता थी। चार्ली चैपलिन के बाद रे फिल्मी दुनिया के दूसरे व्यक्ति थे जिसे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा था। उन्हें भारत रत्न दादा साहेब फालके, मानद आस्कर एवं अन्य कई पुरस्कारों से देश विदेश में सम्मानित किया गया था।
सत्यजीत दा की अनोखी कल्पनाशीलता का पता फेलूदा तोपसे और प्रो.शंकू के कारनामों से सजी उनकी कहानियों से चलता है। ऐसा लगता है जैसे वे भविष्य में झांकने की शक्ति रखते थे। उनके द्वारा ईजाद किये हुए फेलूदा और प्रो.शंकू के किरदार आज भी लोगों को गुदगुदाते हैं और उनके कारनामों में आज भी उतनी ही ताजगी महसूस होती है जितनी तब जब ये लिखे गए थे।
फेलूदा की लोकप्रियता तो इतनी अधिक है कि उसे देसी शरलक होम्स कहा जाता है। भारत के अन्य किसी भी उपन्यासकार या लेखक के किरदार को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली है जितनी कि रे के फेलूदा और प्रो.शंकू को मिली। रे की प्रतिभा से प्रभावित पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने उनसे रवीन्द्रनाथ टेगौर पर वृत्तचित्र बनाने का आग्रह किया था। कुछ आलोचकों को कहना था कि रे की फिल्में बहुत ही धीमी गति की होती हैं पर उनके प्रशंसक इन आलोचनाओं का कड़ा जवाब यह कहकर देते थे कि उनकी फिल्में धीमी बहती नदी के समान हैं जो सुकून देती हैं।
रे की लोकप्रियता का इसी से पता चलता है कि वर्ष 2007 में बीबीसी ने उनके किरदार फेलूदा की दो कहानियों को अपने रेडियो कार्यक्रम में शामिल करने की घोषणा की थी।
 सत्यजीत रे 70 वर्ष की उम्र में 23 अप्रैल 1992 को इस दुनिया से विदा हुए। उस समय हजारों प्रशंसकों ने कलकत्ता स्थित उनके निवास के बाहर एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी।

महाशिवरात्रि

 shivratri शिव-शक्ति के दिव्य मिलन का पर्व महाशिवरात्रि आज मनाया जा रहा है। आज श्रद्धालु शिवालयों में भगवान भोलनाथ का जलाभिषेक कर आक-धतूरे, पुष्प,फल, बील पत्र आदि अर्पित कर रहे है। जय बम भोले, जय शिव शंकर और हर-हर महादेव के जयकारों से मंदिर गूज रहा है।
मान्यता के अनुसार, आज ही के दिन देवो के देव भोले शंकर का पार्वती के साथ विवाह हुआ था। इस दिन के पौराणिक काल से ही महाशिवरात्रि के रूप में मनाने की पंरपरा है। मान्यता है कि आज के दिन सच्चा मन से भोले भंडारी की पूजा अर्चना करने से सभी मन्नत पूरी होती है। धर्मनगरी हरिद्वार में महाशिवरात्रि की धूम है।
शिव रात्रि को लेकर सबसे ज्यादा चहल-पहल शिव की ससुराल कनखल में है। कनखल में शिव मंदिरों के दुल्हन की तरह सजाया गया है।
शिवजी को सभी देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इनकी आराधना सभी प्रकार की फलों को प्रदान करती है। महादेव को कई नामों से जाना जाता है जैसे भोलेनाथ, नीलकंठ, उमापति, भोलेनाथ, दीनानाथ, शंकर आदि। शिवरात्रि पर इनकी पूजा-अर्चना से सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है और सुख-समृद्धि में बढ़ोतरी होती है। यदि आप भी शिवरात्रि पर धर्म लाभ और पुण्य लाभ अर्जित करना चाहते हैं और किसी बड़े मंदिर या तीर्थ जाने का समय नहीं है तो अपने नजदीक किसी भी शिव मंदिर में पूजा करें। निश्चित ही इस पूजा से भी भगवान महादेव की कृपा अवश्य प्राप्त होगी।

शिवजी को भोलेनाथ कहा जाता है क्योंकि वे बहुत ही भोले हैं और अपने भक्तों के भावों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति धन की कमी या समय की कमी के कारण महादेव के किसी तीर्थ पर जाने में अक्षम हैं तो वे सुविधानुसार किसी भी मंदिर में शिवलिंग की पूजा कर सकते हैं।

ऐसा माना जाता है कि कण-कण में शिवजी विराजमान हैं। इसी वजह से शिवजी सभी मंदिरों में विराजमान हैं। इस शिवरात्रि यदि आपके पास पर्याप्त समय और धन है तो आप महादेव के 12 ज्योतिर्लिंग में से किसी भी ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर सकते हैं। ज्योतिर्लिंग की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है, शास्त्रों के अनुसार इन 12 स्थानों पर भोलेनाथ साक्षात विद्यमान हैं और भक्तों की मनोकामनाएं तुरंत ही पूरी करते हैं। साथ ही शिवरात्रि पर माता पार्वती के पूजन का भी विशेष महत्व है। माता पार्वती की पूजा के लिए देशभर में 51 शक्तिपीठ बताए गए हैं। इन 51 शक्तिपीठ की पूजा का विशेष महत्व है। शिवरात्रि पर किसी भी शक्तिपीठ के भी दर्शन और पूजा करनी चाहिए।

Saturday, January 22

बदलते विज्ञापन....




वे दौर अब नहीं रहा जब टीवी पर विज्ञापन आते ही आपकी नजर रिमोट पर दौड़ती थी और आप फट से चैनल बदल देते थे। मौजूदा दौर में एकता कपूर के के सीरियल भले ही उबाउ हो चले हों पर विज्ञापन समय दर समय रोचक होते जा रहें हैं। अब किसी खास विज्ञापन की वजह से आप चैनल बदलते बदलते उंगलियों को रोक दें ऐसा सम्भव है। विज्ञापन अब एक बड़ा उद्योग बन चला है और इस उद्योग में रचनात्मकता की उड़ान अपने उफान पर है। विज्ञापन विभिन्न संस्थानों में एक विषय के रुप में पढ़ाया जाने लगा है और इस क्षेत्र में ऐसे ऐसे दिग्गज निकलकर आ रहे हैं जिन्होंने नीरस ढ़र्रे पर चले आ रहे विज्ञापन उद्योग को नई शक्ल  दे दी है।

सितारों की चमक
विज्ञापन में फ़िल्मी सितारों  के शामिल  होने से उत्पाद की बिक्री  में कोई फर्क पड़ता है या नहीं यह हमेशा चर्चा का विषय रहा है। लेकिन उत्पादनकर्ता कम्पनियों में स्टारकास्ट की छवि को भुनाने की होड़ हमेशा ही रही है यही कारण है कि कभी आमिर खान साब जी बनकर ठंडे का मतलब दर्शकों को  बताते हैं तो कभी सलमान खान शूटिंग शर्टिंग के विज्ञापन के जरिये क्या हिट क्या फिट समझाते हैं। कभी अमिताभ बच्चन दो बूंद जिन्दगी के मायने चुटकी बजाते ही समझा देते हैं तो कभी सनी  देओल अपने दो किलो के हाथ का हवाला देते हुए अन्डरगारमेंट को हिट करने की कोशिश  करते  दिखाई देते हैं। यही नहीं ओम पुरी, जावेद अख्तर, इरफान खान और कैलाश  खैर जैसी फिल्मों से जुड़ी हुई हस्तियों की दमदार आवाज भी इन दिनों विज्ञापनों का जायका बढ़ा रही है। हांलाकि उत्पादनकर्ता कम्पनियां यह समझाती हैं कि बात जब उत्पाद की विश्वसनीयता पर आती है तो लोग सितारों के भरोसे ही खरीददारी नहीं कर लेते लेकिन पूरी रणनीति के साथ चलने वाली ये कम्पनियां अगर अपने उत्पाद के प्रोमोशन  के लिए फिल्मी सितारों पर इतना पैसा बहा रही हैं तो जाहिर  है इसकी कोई ठोस वजह जरुर होगी।

कमाल पंच लाइन का
विज्ञापनों में पंचलाइन की भूमिका शुरु से ही अहम रही है। साड़ी पहने हुए एक आदर्श भारतीय नारी जब गृहणियों को फेना ही लेना की सलाह देती थी तो उसका एक अलग ही असर होता था। यह असर कुछ वैसा ही था जैसे हमारे बीच का ही कोई खुशमिजाज हितेषी  हमें नेक सलाह दे रहा हो। धीरे धीरे पंचलाइन समय के साथ टेंडी होने लगी। ठंडे का मतलब कोकाकोला बताया जाने लगा। इच्छा भले हो या ना हो पर दिमाग में दिल मांगे मोर छाने लगा। इतने से ही काम ना चला तो कोल्डड्रिंक  को मर्दानगी और सेन्सेशन  से जोड़कर टेस्ट द थन्डर का रुप दे दिया गया। लेकिन पंचलाइन को अभी और फक्कड़ होना था। आपकी और हमारी रोजमर्रा की भाषा  के और करीब आना था। ऐसे में दिमाग की बत्ती जला देने का सिलसिला शुरू  हुआ। विज्ञापनों में कभी जोर का झटका धीरे से लगने लगा तो कभी यारा दा टशन, तो कभी दो रूपए के दो लड्डू   भाषा  का हिस्सा बन गया। चन्द शब्दों की इस बाजीगरी से दर्शक  एक बार सोचने को मजबूर जरुर हुए कि क्या इसी तरह का कोई आइडिया उनकी जिन्दगी को बदल सकता है।

Thursday, January 20

'सलमान' ने करवाया 'अमिताभ'को आईफा से बेदखल!

salman-khan-amitabh-bachchanकल तक खबर ये थी कि बॉलीवुड के शंहशाह अमिताभ बच्चन प्रमुख अवार्ड समारोह आईफा से अलग हो गए हैं। चारों ओर ये खबर थी आखिर ये कैसे हो गया? पिछले दस सालों से आईफा और अमिताभ दो जिस्म और एक आत्मा रहे हैं, फिर दोनों के बीच में दरार कहां से आ गई जिसकी वजह से अमिताभ को आईफा से अलग होना पड़ा।
फिल्मी गलियारों में अफवाओं का बाजारा गर्म है, लेकिन फिल्मी पंडितों ने इसके पीछे बॉलीवुड के दंबग सलमान खान को कारण बताया है। खबर ये आ रही है कि पिछली बार अमिताभ इस अवार्ड फंक्शन के ब्रांड एंबेसडर होने के बावजूद भी श्रीलंका नहीं गये थे, वो भी बिना कोई वाजिब कारण बताये। ये बात अलग है कि उस समय उनके सुपुत्र और बहुरानी की फिल्म रावण को प्रदर्शित होना था जिसके चलते वो वहां नहीं गए थे।

लेकिन अमिताभ ने आईफा को कोई सूचना नहीं दी, आईफा ने उनकी जगह सलमान को मौका दे दिया, सलमान ने स्टेज और मंच दोनों को ही बखूबी संभाल लिया, और तो और बॉलीवुड के इस प्लेबॉय ने सबका दिल भी जीत लिया। कहा ये भी जा रहा है सलमान से होस्टिंग कराये जाने की वजह से अमिताभ काफी क्रोधित थे।

सूत्रों की मानें तो बिग बी आईफा के इस फैसले से बेहद दुखी थे कि उनकी सलाह लिए बिना ही आयोजकों ने न सिर्फ श्रीलंका में समारोह आयोजित कराने का फैसला किया बल्कि सलमान खान को बतौर होस्ट भी साइन कर लिया। आईफा के इस फैसले के बाद ही अमिताभ ने नाता तोड़ने का मन बना लिया। इन बातों से तो यही लग रहा है कि बॉलीवुड के दंबग से डर गया शहंशाह।

'फिदा' के जाने पर ये स्यापा क्यों?



मकबूल कतर जा रहे हैं। अब वहीं बसेंगे और वहीं से अपनी कूचियां चलाएंगे.. ये खबर सुनकर हिंदुस्तान में कुछ लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा है। इस गम में वो आधे हुए जा रहे हैं कि कुछ अराजक तत्त्वों के चलते एक अच्छे कलाकार को हिंदुस्तान छोड़कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पूरे ड्रामे को देखकर उन तथाकथित सहिष्णु लोगों पर हंसी, हैरानी और गुस्सा आता है।
95 साल का एक बूढ़ा जो अब तक आम लोगों की भावनाओं को अपनी कला के जरिये ठेंगे पर दिखाने की कोशिश करता आया है, जब वो खुद अपनी मर्जी से, अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहा है तो फिर ऐसे लोगों का कलेजा भला क्यों फट रहा है..? क्यों.. क्योंकि उनके पास आधी-अधूरी जानकारी है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वो इस पूरे ड्रामे को अपनी सहिष्णुता का झूठा चश्मा उतारकर ईमानदारी से देखें।

मकबूल कतर में बस रहे हैं क्योंकि वहां उन्हें शाही परिवार का चारण बनकर शाही परिवार के लिए पेंटिंग बनाने का काम मिल गया है और जाहिर तौर पर जिंदगी को विलासिता से जीने के लिए वो शाही परिवार इस कलाकार को बेशुमार पैसा दे रहा है। पैसा इस करोड़पति कलाकार की पुरानी कमजोरी रही है। ये तस्वीरें सिर्फ अमीरों के ड्राइंग रूम के लिए बनाते हैं। इनकी करोड़ों की पेंटिंग्स खरीदने वाले धनपशुओं के लिए समाज का मतलब उनकी पेज थ्री सोसायटी होती है और खाली वक्त में टीवी चैनलों पर बैठकर किसी को भी धर्मनिरपेक्ष और धर्मांध होने का सर्टिफिकेट बांटना उनका शौक होता है। सवाल ये है कि हुसैन ने कुछेक 'पेंटिंग' बनाने के अलावा इस देश के लिए क्या कुछ सार्थक किया है? क्या उन्होंने गरीब.. अनाथ बच्चों के लिए कोई एनजीओ खोला या क्या उन्होंने पेंटिंग के जरिये कमाई अपनी करोड़ों-अरबों की दौलत का एक छोटा सा हिस्सा भी इस देश के सैनिकों के लिए समर्पित किया? मकबूल ने जो कुछ भी किया सिर्फ अपने लिए किया।
तर्क देने वाले तर्क देते हैं कि एक कलाकार को कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपनी इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल बार-बार दूसरों की सहनशक्ति का परीक्षण करने के लिए करें? कहते हैं अश्लील पेंटिंग्स का विरोध हुआ तो मकबूल व्यथित हो गए। सरकार ने सुरक्षा का भरोसा दिलाया, लेकिन मकबूल को भरोसा नहीं हुआ। दरअसल मकबूल को समझ में आ गया था कि सरकार पर भरोसा न करने से पब्लिसिटी कुछ ज्यादा ही मिल रही है। लोगों के बीच इमेज एक ऐसे 'निरीह प्रतिभावान' कलाकार की बन रही है, जो अतिवादियों का सताया हुआ है। ये तो वाकई कमाल है। दूसरों की भावनाएं आपके लिए कुत्सित कमाई का सामान हैं। उस पर अगर विरोध हो तो आप बौद्धिक बनकर उनके विरोध पर भी ऐतराज जताने लगें।
अगर आपका दिल इतना ही बड़ा था तो आप एक माफी का छोटा सा बयान जारी कर खुद के एक दरियादिल कलाकार होने का परिचय दे सकते थे? मामले को शांत कर सकते थे। लेकिन आपके लिए न तो हिंदुस्तान के भावुक लोग कोई अहमियत रखते हैं और न ही हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था का आपके लिए कोई मतलब है। अश्लील पेंटिंग का मामला कोर्ट में गया तो इस 'कलाकार' ने एक बार भी कोर्ट में हाजिर होना जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने इसे अवमानना के तौर पर लिया और फिर मकबूल के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया, फिर भी मकबूल को अक्ल नहीं आई। आती भी कैसे? अक्ल न आने की कीमत पर ही तो इतनी सारी पब्लिसिटी और करोड़पतियों के ड्राइंग रूम में पेंटिंग रखे जाने का कीमती तोहफा मिल रहा था। कतर में बसने की खबर भी मकबूल ने ऐसे फैलाई है, जैसे वो इसके जरिये हिंदुस्तान के मुंह पर तमाचा रसीद करने की खवाहिश पूरी कर रहे हों।
दुबई में डेरा डाले हुसैन ने एक अंग्रेजी दैनिक को खुद अपनी तस्वीरें भेजी और कतर की नागरिकता मिलने की खबर दी। एक अखबार को खबर देने का मतलब ये था कि ये खबर पूरे देश में फैले। सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद मकबूल के दिल में इस मुल्क में बसने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर ये ख्वाहिश होती तो फिर इस देश में लौट आने के कई बहाने मकबूल के पास होने चाहिए थे। अगर बात विरोध की ही थी तो जितना विरोध 'माई नेम इज खान' का हुआ, उतना मकबूल का तो कतई नहीं हुआ था। 'खान' बढ़िया तरीके से रिलीज भी हुई और शाहरूख आज भी अपने मन्नत में उसी शान के साथ रह रहे हैं, जैसे पहले रहते थे।
दरअसल मकबूल में खुद को सताया हुआ कलाकार दिखाने का शौक कुछ ज्यादा ही था। इसके साथ ही मकबूल का 'कला' बाजार दुबई और कतर जैसे अरब मुल्कों में खूब बढ़िया चलने भी लगा था। तेल भंडारों से बेशुमार पैसा निकाल रहे शेखों के पास अपने हरम पर खर्च करने के अलावा मकबूल की पेंटिंग खरीदने के लिए भी खूब पैसा है। मकबूल को और चाहिए भी क्या? सवाल ये है कि कतर में मकबूल को अपना बाजार दिख रहा है या फिर मकबूल को वाकई कतर में किसी कमाल की धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता की आस है? अगर ऐसा है तो फिर मां सरस्वती की तरह ही कतर में मकबूल बस एक बार अपने 'परवरदिगार' की एक 'पेंटिंग' बना दें.. फिर देखते हैं, जिस कतर ने आशियाना दिया है वो कतर मकबूल को एक नया आशियाना ढूंढने का वक्त भी देता है या नहीं।
DEEPIKA
 

अलग –अलग विधा हैं साहित्य और सिनेमा

साहित्य और सिनेमा के रिश्ते की जब भी चर्चा होती है, हिंदी में एक तरह की वैचारिक गर्मी आ जाती है। किसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म को लेकर अक्सर साहित्यकारों को शिकायत रहती है कि फिल्मकार या निर्देशक ने उसकी रचना की आत्मा को मार डाला। हिमांशु जोशी ने अपनी कहानी सुराज पर बनी फिल्म में मनमाने बदलाव के बाद भविष्‍य में अपनी कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति देने से कान ही पकड़ लिये। हालांकि राजेंद्र यादव, जिनके मशहूर उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से फिल्म बन चुकी है, मानते रहे हैं कि कहानी और उपन्यास जहां लेखक की रचना होती है, वहीं फिल्म पूरी तरह निर्देशक की कृति होती है। कुछ ऐसा ही विचार हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल के तीसरे दिन सिनेमा और साहित्य के रिश्ते पर आयोजित गोष्ठी में शामिल वक्ताओं के भी रहे।
मशहूर फिल्मकार के. बिक्रम सिंह का कहना है कि साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर चर्चा के वक्त हिंदी में विवाद की असल वजह है कि दरअसल हिंदी में विजुअल आधारित सोच का विकास नहीं हुआ है, बल्कि सोच में शाब्दिकता का जोर ज्यादा है। उनका कहना है कि सिनेमा में कला, संगीत, सिनेमॉटोग्राफी, कला निर्देशन जैसी कई विधाओं का संगम होता है। ऐसे में साहित्य को पूरी तरह से सेल्युलायड पर उतारना संभव नहीं होता। उन्होंने सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली का उदाहरण देते हुए कहा कि इस उपन्यास में जहां करीब पांच सौ चरित्र हैं, वहीं फिल्म में महज दस-बारह। उन्होंने श्रीलंका के मशहूर उपन्यासकार लेक्सटर जेंस पेरी का उदाहरण देते हुए कहा कि उनके उपन्यास टेकावा पर जब फिल्म बनी और उनसे प्रतिक्रिया पूछी गई तो पैरी ने कहा था कि उपन्यास उनका है, जबकि फिल्म निर्देशक की है। उन्होंने रवींद्र नाथ टैगोर के हवाले से कहा कि सिनेमा कला के तौर पर तभी स्थापित हो सकेगा, जब वह साहित्य से छुटकारा पा लेगा। हालांकि मशहूर फिल्म समीक्षक और कवि विनोद भारद्वाज ने रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी चारूलता का उदाहरण देते हुए कहा कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं। जिस पर सत्यजीत रे ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। भारद्वाज ने शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर बनी विमल राय की फिल्म देवदास और अनुराग कश्यप की देव डी का उदाहरण देते हुए कहा कि एक ही कृति पर अलग-अलग ढंग से सोचते हुए अच्छी फिल्में जरूर बनाई जा सकती हैं। उनका सुझाव है कि साहित्यकारों को यह सोचना चाहिए कि महान साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के वक्त छेड़छाड़ उस कृति की महानता से छेड़छाड़ नहीं है। साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों की रिलीज के बाद साहित्य और सिनेमा के रिश्तों में आने वाली तल्खी का ध्यान फ्रेंच फिल्मकार गोदार को भी था। यही वजह है कि वे अच्छी और महान कृति पर फिल्म बनाने का विरोध करते थे। वैसे सिनेमा और साहित्य के रिश्ते को समझने के लिए फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारिशरण नया नजरिया देते हैं। उनका कहना है कि चूंकि साहित्य का जोर कहने और सिनेमा का जोर देखने पर होता है, लिहाजा भारत में दोनों विधाओं के रिश्तों में खींचतान दिखती रही है। उनका मानना है कि चूंकि यूरोप में कहने और देखने का अनुशासन विकसित हो चुका है, लिहाजा वहां साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को लेकर वैसे सवाल नहीं उठते, जैसे भारत में उठते हैं। शरण के मुताबिक यही वजह है कि भारत में प्रबुद्ध सिनेकार महत्वपूर्ण रचनाओं को छूना तक नहीं चाहते। उनका सुझाव है कि सिनेमा और साहित्य असल में दो तरह की दो अलग विधाएं हैं, लिहाजा उनके बीच तुलना होनी ही नहीं चाहिए।

फ़िल्मी पर्दे से ओझल होता भारतीय किसान

खेती-किसानी भारतीय समाज की जीविका का मुख्य आधार है, इसलिए समय-समय पर हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी कई ऐसी फ़िल्में बनती रहीं जो किसानों की जीवन-शैली और उनकी मुश्किलों पर प्रकाश डालती हैं, लेकिन आज समाज का आइना कहा जानेवाला हमारा सिनेमा हमारे किसानों को भूल गया है। सालाना हज़ारों फ़िल्मों का निर्माण स्थल मुंबई बॉलीवुड में आज किसानों की सुध लेनेवाली फ़िल्में नदारद हैं।
हाल ही में किसानों पर आधारित दो फ़िल्में रिलीज हुईं `गोष्ट छोटी डोंगराएवढ़ी' और `किसान'। दिवंगत अभिनेता नीलू फुले की आखिरी फ़िल्म मानी जानेवाली मराठी फ़िल्म `गोष्ट छोटी डोंगरावढ़ी' को लोगों का अच्छा प्रतिसाद मिला, लेकिन उसकी वजह फ़िल्म का विषय और नीलू के अलावा इस फ़िल्म का `मराठी' भाषा में होना रहा। लेकिन विदर्भ के किसानों की आत्महत्या का यह मार्मिक चित्रण सिऱ्फ मराठीभाषी क्षेत्रों से ही दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित कर सका। वहीं सोहेल खान निर्देशित `किसान' नरम पटाखे की तरह बॉक्स ऑफिस पर धमाका करने में असफल रही। इसकी एक बड़ी वजह इस फ़िल्म की कमजोर पटकथा को माना जा रहा है। प्रयोगात्मक सिनेमा के लिए मशहूर मधुर भंडारकर के मुताबिक ऐसी फ़िल्मों के सफलता के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि उनकी कहानी को दर्शकों की पसंद के अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया जाये। पर्दे पर सिऱ्फ गांव के दृश्य दिखाकर किसी कमजोर और देखी-दिखायी कहानीवाली फ़िल्म को भला कैसे बेचा जा सकता है।हिंदी फ़िल्मों में किसानों की बात उठे तो दिमाग में एक ही नाम आता है- मनोज कुमार। हममें से अधिकांश बचपन से मनोज कुमार की फ़िल्मों में गांव को देखकर बड़े हुए और उनकी वो फ़िल्में आज भी देखी जाती हैं, नि:संदेह इसकी वजह मनोज कुमार की दूरदर्शिता और सामायिक मुद्दों की पहचान में उनका सक्षम दिमाग ही माना जा सकता है। आजादी के बाद गांवों के विकास के ज़रिये देश का विकास करने की योजनाएं बन रही थीं। मनोज कुमार ने उसी दौर में गांवों की बदलती परिस्थितियों, किसानों की जरूरतों और भारतीय परिवारों में आपसी मेलजोल बनाये रखने में आ रही मुश्किलों को कथावस्तु बना अपनी फिल्मों में गांवों के तत्कालीन चेहरे को लोगों के सामने प्रस्तुत किया। उससे पहले किसानों पर आधारित `दो बीघा जमीन' और `मदर इंडिया' जैसी सफल फ़िल्में भी बन चुकी थीं। अच्छी कहानी के साथ उनकी भी लोकप्रियता की वजह उनका सामायिक होना ही था।
परिवर्तन समय का नियम है और उसी समय ने भारतीय सिनेमा जगत की परंपराओं को भी बदल दिया। १९७० के दशक में `शोले' जैसी फ़िल्मों में गांवों का चित्रण तो हुआ, लेकिन खेती-किसानी पर्दे पर नहीं दिखी। इस फ़िल्म के बाद गांवों की पृष्ठभूमि में ऐसी कई फ़िल्में बनीं, लेकिन पारिवारिक ड्रामे, डकैती, मार-धाड़ और नाच-गाने के अलावा इन फ़िल्मों में और कुछ नहीं दिखा। `दुश्मन', `मेला' `गौतम गोविंदा', `धरती कहे पुकार के' जैसी फ़िल्मों का कमर्शियल मसालों से भरपूर होने के बावजूद इनमें कभी-कभार भारतीय किसान और उसकी जिंदगी के दर्शन होते रहे, लेकिन उसके बाद हिंदी फ़िल्मों से किसान गायब होते रहे और धीरे-धीरे बॉलीवुड उन्हें भूलता सा गया। आज भारत की पहचान आइटी हब के रूप में बन रही है, लेकिन दुनियाभर की चीजों को बेचने का महत्वपूर्ण बाजार बन चुके भारत का एक रूप उसके गांवों में बसता है, जहां किसी आलीशान टॉवर, हॉट डॉग, ब्लैकबेरी या ब्रांडेड कपड़ों की मांग नहीं है। उन गांवों का निवासी वहां का किसान अपने खेतों में अनाज उगाने के लिए पहले उन खेतों को गिरवी रखता है और फिर कर्ज न चुका सकने की स्थिति में अपनी जीवनलीला अपने ही हाथों खत्म कर देता है, लेकिन शहरी चकाचौंध को कैमरे में कैद करनेवालों की तरफ यह मजबूर किसान मदद की आस भरी नज़रों से नहीं देख सकता क्योंकि उन्हें उसका दर्द दिखायी नहीं पड़ता। उन्हें टैक्टर, ट्यूबवेल, आमों का पेड़ या तालाब के किनारे पानी पीते गाय-बछड़ों या कच्चे मकानों की खूबसूरती आकर्षित नहीं करती।
यह सच है कि हिंदी फ़िल्मों का दर्शक परदे पर अपना गांव और खेल-खलिहान देखना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ समय के साथ उसकी पसंद भी बदल गयी है और इसका प्रमाण  `समर २००७' और `किसान' का बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरने से मिलता है। फ़िल्मों में पुराने माने जा रहे विषय पर बनी इन फ़िल्मों को नये ढांचे में ढालना ज़रूरी है। इसलिए यहां इस विषय के साथ प्रयोग करने की जरूरत महसूस होती है। इन फ़िल्मों की कथावस्तु मजबूत बनाने के साथ इनमें सहजता से पात्रों और परिस्थितियों को मौजूदा समय के हिसाब से अगर प्रस्तुत किया जाये तो दर्शक भी इन फ़िल्मों को देखने में रुचि लेंगे और शायद किसी तरह भारतीय किसान बॉलीवुड में अपनी वापसी कर सकेगा।
हालाँकि अनुष्का रिज़वी द्वारा निर्देशित पीपली लाइव एक हद तक बॉक्स ऑफिस पर हिट रही,  अब दर्शको को इंतजार है किरण राव द्वारा निर्देशित फिल्म '' धोबी घाट '' का. इस फिल्म से कई उमीदे है देखते है यह फिल्म दर्शको पर अपना रंग चढाने में सफल होती है या नहीं ...........

दीपिका

Wednesday, January 19

यादगार फ़िल्में

बीआर चोपड़ा की यादगार फिल्मे ......भारतीय फ़िल्म इतिहास में फ़िल्मकार बीआर चोपड़ा का नाम बड़ा अदब से लिया जाता है. यहाँ मैं उनकी कुछ फिल्मों पर रौशनी डालने जा रही हूँ
बीआर चोपड़ा ने अपनी फ़िल्मों में विधवा पुनर्विवाह, वेश्यावृत्ति जैसे कई विषयों को उठाया.
1957 में आई उनकी फ़िल्म नया दौर में नेहरू काल के आर्दश झलकते हैं तो 1958 में आई साधना वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर समाज से सवाल करती नज़र आती है.
गुमराह, हमराज़,क़ानून और निकाह जैसी फ़िल्में का नाम उनकी बनाई फ़िल्मों की सूची में शामिल है.
हालांकि बीआर चोपड़ा की ज़्यादातर फ़िल्में किसी न किसी सामाजिक मुद्दे पर आधारित होती थीं लेकिन इन प्रयोगात्मक फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर भी कमाल दिखाया.
नया दौर की कहानी को कई टॉप निर्देशकों ने ठुकरा दिया था लेकिन बीआर चोपड़ा ने रिस्क लिया और फ़िल्म बनाई.
बीआर चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा ने कहा, "मेरे पिता काम को अंजाम देने में विश्वास रखते हैं. मेरे लिए वो सर्वश्रेष्ठ निर्देशक हैं और रहेंगे."
नया दौर का रंगीन वर्ज़न भी काफी समय पहले  रिलीज़ हो गया  है. आईये धन्यवाद करते है चोपड़ा जी को जिन्होंने समाजिक बुराइयों को फिल्म के रूप में हमारे सम्मुख रखा.   

Tuesday, January 18

सपने हज़ार



इन नन्ही नन्ही आँखों ने सपने हज़ार देखे हैं,
डर है कहीं कोई सपना अखियों से बाहर न छलक जाये...
डर है कहीं ज़माने को पता न चल जाये
डर है कहीं ये मुझसे दूर न हो जाये
ज़माने की कटुता ये सह  न पाएंगे
इतने कोमल हैं कि दर्द सह न पाएंगे
डर है कहीं इनमे खरोच न आ जाये
डर है कहीं लहू लोहान न हो जाये

इतने प्यार और विश्वास के साथ इन्हें संजोया
जैसे माला में मोती पिरोया है
जिस दिन सपनो की ये माला टूटी
समझ लेना मैं जिंदगी से रूठी

किसी के स्पर्श से ये कहीं छू मंतर न हो जाये
इसलिए इन्हें आँखों में पनाह दी है
ये सोच कर कि मेरी अर्थी के साथ
ये भी मिट्टी में  मिल जायेंगे
तब भी राख़ के साथ ये उड़ते जायेगे
इस खुवाइश के साथ .....
शायद अब भी पूरे हो जायेगे.....

Sunday, January 16

दस रुपये का चार सिनेमा

दस रुपये का चार सिनेमा सचमुच मन गदगद हो गया। ज़माने से आम लोगों के मनोरंजन के तौर-तरीके और अधिकार पर रिपोर्ट कर रहा हूं। मल्टीप्लेक्स ने ऐसा धकियाया कि आम आदमी पान के खोमचे में चलरहे सिनेमा को खड़ा हो कर आधा-अधूरा देख काम पर चला जाता है तो कई लोगों ने कई सालों से सिनेमा हॉल में फिल्म ही नहीं देखी। पिछले साल सिनेमा का सिकुड़ता संसार पर रवीश की रिपोर्ट बनाई थी। ये रिपोर्ट www.tubaah.comपर है। पीपली लाइव के सह-निर्देशक महमूद फ़ारूक़ी से बात चल रही थी। हम उम्मीद कर रहे थे कि कहीं न कहीं वीडियो हॉल तो होंगे इस दिल्ली में। उस रिपोर्ट के दौरान नहीं मिला। हां सीमापुरी और लोनी बॉर्डर से सटे एक गांव में एक मल्टीप्लेक्स ज़रूर मिला जहां का अधिकतम रेट ४० रुपये था। वैसे अब मेरे पड़ोस के मल्टीप्लेक्स में गुरुवार को पचास रुपये का टिकट मिल रहा है। मल्टीप्लेक्स वाले औकात पर आ रहे हैं। ख़ैर भूमिका में समय क्यों बर्बाद कर रहा हूं। पहले नज़र पड़ी दिल्ली के एक पुनर्वास कालोनी में लगे इन चार फिल्मी पोस्टरों पर। अजीब से नाम। लोग निहार रहे थे। कैनन के कैमरे से क्लिक करने नज़दीक गया तो ढिशूम ढिशूम की आवाज़ आ रही थी। पर्दा हटाया तो सिनेमा हॉल निकला। कैमरा घुसेड़ दिया। तभी ग़रीब सा मालिक दौड़ा आया कि ये मत कीजिए। दिखा देंगे तो प्रशासनवाले हटा देंगे। सोचिये कि ये ग़रीब लोग कहां जाएगा। जब काम पर नहीं जाता है तो यहीं अपना मनोरंजन करता है। मैंने उसकी बात मान ली और कहा कि मनोरंजन के अधिकार के तहत मेरी नज़र में यह ग़ैरक़ानूनी नहीं है। मैं जगह नहीं बताऊंगा कि कहां देखा। स्टिल लेने दीजिए। भीतर झांक कर देखा तो कोई सौ केक़रीब लोग ज़मीन पर बैठकर सिनेमा देख रहे थे। ठूंसा-ठेला कर। पूरी शांति और शिद्दत के साथ। लंबा सा हॉल। दूर एक टीवी नज़र आ रहा है। हॉलमें स्पीकर की व्यवस्था थी। मालिक ने बताया कि हमारा रेट ग़रीब लोगों के हिसाब से है साहब। दस रुपये में चार सिनेमा या फिर पांच रुपये में दो सिनेमा। जो पांच रुपये देता है उसको दो सिनेमा के बाद बाहर निकाल देते हैं। ये कहां जाएंगे। यहां से शहर इतनी दूर है कि मटरगस्ती के लिए भी नहीं जा सकते। कोई पार्क नहीं है। घर इतना छोटा है कि छुट्टी के दिन कैसे बैठे। बस यहीं चले आते हैं मनोरंजन के लिए। सिनेमा को इसी रेट पर उपलब्ध कराने का मालिक ने जो क्रांतिकारी कार्य किया है वोउनको जवाब है जो चंद लोगों के मुनाफ़े के लिए एंटी पाइरेसी का अभियान चलाते हैं और सरकार से रियायती ज़मीन लेकर मल्टीप्लेक्स बनाते हैं। इस तरह से ठूंसा कर तो मैंने बहुत दिनों से कोई फिल्म ही नहीं देखी है। पीपली लाइव और दबंग में भीड़ देखी थी। आज ही नो वन किल्ड जेसिका नाम की एक ख़राब डॉक्यूमेंट्री देखने गया था। दस लोग थे। आम आदमी को बाज़ार से निकाल कर बाज़ार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए कि उनका सिनेमा मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर उतरता है तो इन्हीं गलियों में मेहनत की कड़ी कमाई के दम पर सराहा जाता है। सरकार को कम लागत वाले ऐसे सिनेमा घरों को पुनर्वास कालोनियों में नियमित कर देनाचाहिए। टैक्स फ्री। पिछले एक महीने से दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में घूम रहा हूं। अजीब-अजीब चीज़ें मिल रही हैं। बिना नाम वाले इस सिनेमा हॉल को देखने के बाद रहा नहीं गया। आज इस सवाल का साक्षात जवाब मिल ही गया कि चाइनीज़ डीवीडी क्रांति के बाद भी वो बड़ी आबादी अपना मनोरंजन कैसे कर रही है जो न तोसेकेंड हैंड टीवी खरीदने की हालत में है न ही चाइना डीवीडी। दस रुपये में चार सिनेमा का रेट। वाह।

Saturday, January 15

ताजमहल सिर्फ अमीरों के लिए!

जिस प्रेम के बेमिसाल प्रतीक ताजमहल को देखकर दुनिया भर के प्रेमी युगल कई जन्मो तक साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाते रहे हैं, उसे सिर्फ रईसों के लिए सीमित करने की वकालत की जा रही है।

ब्रिटेन की प्रतिष्ठित फ्यूचर लेबोरेटरी के एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि भारत में ताजमहल, मिस्र के पिरामिड और वेनिस को धनी वर्ग के लिए खेल का विशेष मैदान बना दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें संरक्षित किया जा सके।

उसने चेतावनी दी कि इन विश्व विरासत स्थलों को बचाने के लिए यदि यह कार्रवाई नहीं की गई तो पर्यटन के भारी दबाव के कारण हम अगले 20 वर्षों में इसे खो देंगे।

‘डेली एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के मुताबिक ये विश्व विरासतें केवल धनी लोगों के लिए सीमित की जानी चाहिए और आम पर्यटकों के देखने के लिए अलग से एक प्लेटफार्म बनाया जाना चाहिए।

भविष्यवेत्ता लॉन पियर्सन ने कहा कि भविष्य में हम जहाँ चाहते हैं वहाँ नहीं जा सकेंगे। आने वाले समय में पर्यटन की सुविधाएँ कुछ स्थलों पर होंगी और केवल धनी और प्रसिद्ध व्यक्ति ही इन पर्यटन स्थलों का टिकट खरीद पाएँगे। (भाषा)

आस्था से जुड़ी मकर संक्रांति


मराठी में यह एक प्यार भरा निवेदन है, जिसका अर्थ है तिल-गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो, तिल-गुड़ फेंकना नहीं और हमसे लड़ना नहीं। यही प्यार भरा संदेश हमारी संस्कृति में भी रचा-बसा है।

भारतीय त्योहार सदैव एकजुटता व परस्पर प्रेम के द्योतक हैं। मकर संक्रांति पर्व भी ऐसे ही स्नेह व श्रद्धा से हर प्रांत व जाति द्वारा मनाए जाने वाला त्योहार है। यह ऊर्जा के स्रोत सूर्य की आराधना के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य की दक्षिणायन से उत्तरायन की ओर गति प्रारंभ होती है, जिससे मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ रातें छोटी व दिन तिल के आकार में बढ़ने लगते हैं। यह सृष्टि के अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक है।

विभिन्ना प्रांतों में यह त्योहार थोड़े भिन्न अंदाज व नामों से मनाया जाता है, लेकिन सबका मूल एक-सा ही है। तमिलनाडु में पोंगल, महाराष्ट्र में तिल संक्रांति, पंजाब में लोहड़ी, गुजरात में उत्तरायन, असम में माघ-बिहू और राजस्थान में तो यह पतंग उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पतंग उत्सव में देश से ही नहीं वरन विदेशी भी दूर-दूर से आकर प्रतियोगिता में भाग लेते हैं।

कई स्थानों पर इस दिन लोग मिल-जुलकर गिल्ली-डंडा व पतंगबाजी जैसे आयोजन करते हैं। रंग-बिरंगी पतंगें आसमान की ऊँचाई नापने के साथ, हवा में उड़ती, गोते लगातीं मानो सपनों को छू लेती हैं। जितना आनंद पतंग उड़ाने का उतना ही उसे काटने, पेंच लड़ाने व लूटने में आता है। एक तरह से यह त्योहार ऊँचाइयों को छूने का, गिले-शिकवे दूर कर एक हो जाने का भी है।

आनंद व उल्लास के साथ मकर संक्रांति के दिन जप, तप, दान, स्नान आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। कहते हैं इस समय किया गया दान सौ गुना बढ़कर प्राप्त होता है। महिलाएँ इस दिन सौभाग्य-सूचक वस्तुएँ, तिल-गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं। पवित्र नदी में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर सूर्य को अर्ध्य देना, गाय को चारा खिलाने व खिचड़ी तथा तिल-गुड़ का दान शास्त्रों के अनुसार विशेष फलदायी होता है। 

मकर संक्रांति के दिन तिल से बने व्यंजनों का सेवन सेहत के लिए भी बहुत उपयोगी होता है। तिल का गुड़ के साथ सेवन करने से इसकी पौष्टिकता बढ़ जाती है। साल की शुरुआत में तिल का सेवन पूरे साल निरोगी रखता है। आइए, प्रार्थना करें कि यह मधुर पर्व सबके जीवन में नई उमंग व उम्मीदों का सवेरा लाए। उत्तरायन का सूर्य अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए नई संभावनाओं के साथ।



Thursday, January 13

लोकतंत्र के चौथे खम्बे को बचाओ

जागरूक मीडिया एवं खोजी पत्रकारिता आज हर प्रकार के अन्याय एवं शोषण के विरूद्ध जनसाधारण की आवाज बनकर उभरा है. किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि चहुंओर भ्रष्टाचार से त्रस्त व्यक्ति का यही रक्षाकवच गली गुण्डा प्रकार के मूल्यहीन भटके युवाओं की जमात के हाथ में पैसा वसूली तथा अन्यान्य शोषण का एक नया हथियार भी बन गया है|
छोटे छोटे शहरों कस्बों में बाहुबल से हफ्ता वसूली वाले गुण्डों, गली गली में सक्रिय छुटभैये नेता और पुलिस का पुराना गठजोड़, चाकू की नोक पर परीक्षा पास करके जुगाड़ू डिग्रीधारक गुन्डों की नयी जमात में तब्दील हो चुका है.... हाथ में माइक और कोई छोटा मोटा वीडियो कैमरा.... इनका यही स्वरूप है. पैसा कमाने और धौंस जमाने की नयी व्यवस्था तैयार है... . वरिष्ठ पत्रकार के नाम पर पर्दे के पीछे से अनजान चेहरा किसी फ़िल्मी पटकथा के छिपे चेहरे वाले खलनायक की भांति..... साप्ताहिक खर्चे के लिये पैसों का जुगाड़ करने के लिये अपने चेलों चपाटों को निर्देशित करता है. यह वह व्यक्ति है जो इन्हें संचालित करता है. और यह शिष्य लोग सारा दिन स्कूप के नाम पर सब्जी ठेल वालों तक से “लाइसेंस दिखाओ नहीं तो तुम्हारी न्यूज चैनल पर आ जायेगी..” नासमझ किसी अनजाने भय के वशीभूत हो ले देकर मामला सुलट लेने के लिये तैयार हो जाता है. कभी किसी पार्क में गर्ल फ्रेंड के साथ बैठा कोई युवक घरवलों के भय से समझौता करने को तत्पर हो जाता है. कोई बड़ी पार्टी हाथ आये या फिर कोई तगड़ा स्कूप हाथ लगा तब तो वारे न्यारे...| मीडिया को वही खबर प्रेषित होती है जब कोई इसके लिये तैयार नहीं होता| विषय की गुणवत्ता विचारे बिना सनसनीखेज खबर के नाम पर कई बार महत्वहीन विषय भी किसी न किसी चैनल की खबर बन जाते हैं|
सुबह शाम जहां भी चांस लगा ... लोगों का भयादोहन कर पैसे ऐंठने की नयी व्यवस्था तैयार हो चुकी है.... पहले वाले हथियार के बल पर लोगों को डरा धमका कर लूटते थे तो अपराधिक मामलों में धरे भी जाते थे. परन्तु इन नये कैमरे वाले गुन्डों को तो इसका कोई भय नहीं है. यदि इनसे पूछा जाता है कि भाई अपने चैनल का नाम बताओ तो भाग लेते हैं अथवा किसी न किसी अनजान चैनल का नाम बताकर डरा लेते हैं. इनका परिचय पत्र मांगने अथवा दिखाने की बात पर उलटा जबाब “.... अबे तू क्या मेरी डिग्री देखेगा”। अब कस्बे और जिला स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति तो नियम कानून की समुचित जानकारी नहीं रखता. फिर मीडिया के डर से पुलिस भी इन लोगों से कोई पंगा लेने से डरती है. एक आकलन यह भी है कि स्थानीय एवं राजनीतिज्ञों से मिली भगत के आधार पर ही पैसा वसूली का यह एक नया संगठित ढांचा तैयार हुआ है. मीडिया चैनलों द्वारा स्ट्रिंगर के नाम पर चलने वाली यह व्यवस्था पत्रकारिता के स्थापित मापदण्डों की वास्तविकता से बहुत परे है. व्यक्तिगत रूप से यह लोग कई बार संगठित रूप से हफ्ता वसूली के एजेंट जैसी स्थिति में संलिप्त होकर समाज के सामने एक नयी समस्या खड़ी कर रहे हैं. खोजी पत्रकारिता एवं जागरूक मीडिया के पहरेदारों को इन स्वपोषी अति उत्साही स्वार्थी तत्वों से तत्काल सचेत होने की आवश्यकता है.

Wednesday, January 12




फिल्में भडकाती हैं बच्चों में आक्रोश  


फिल्में लोगों के मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं लेकिन दुख की बात यह है कि फिल्में अपने इस उद्देश्य को पूरा कर पाने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। आजकल फिल्मों में बहुत अधिक हिंसा दिखाई जाती है, इस वजह से दर्शकों की रुचि भी विकृत हो चुकी है। खास तौर से बच्चे फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। उनके अवचेतन मन में हीरो की परदे पर दिखने वाली छवि ही अंकित होती है। वे उन्हीं की तरह बनना चाहते हैं। फिल्में बच्चों के मन में दबे आक्रोश को और अधिक भडकाने का काम करती हैं। बच्चों का यह आक्रोश जब बाहर फूटता है तो कभी-कभी वे अपने दोस्तों के साथ आक्रामक और हिंसक व्यवहार कर बैठते हैं। बच्चों के व्यक्तित्व और चरित्र के निर्माण में फिल्में निश्चित रूप से अपना गहरा प्रभाव डालती हैं। टीनएजर और युवा वर्ग पर भी फिल्मों का नकारात्मक प्रभाव पडता है। टीनएजर फिल्मों में दिखाई जाने वाली हर बात को सही मान लेते हैं और उसी का अनुसरण करने लगते हैं। समाज में बढती हिंसा और अपराध के लिए कहीं कहीं फिल्में जिम्मेदार हैं। फिल्म उद्योग से जुडे लोग अकसर यह तर्क देते हैं कि फिल्में देखकर लोग हिंसा नहीं करते बल्कि समाज में जो होता है हम उसी की सच्चाई बयान करते हैं। लेकिन उनका यह तर्क बिलकुल गलत है। ऐसा नहीं है कि समाज में केवल हिंसा और नकारात्मक बातें ही होती हैं। कई अच्छे कार्य भी समाज में हो रहे हैं, जिनसे सभी को प्रेरणा मिल सकती है। उन अच्छे कार्यो को भी फिल्मों के माध्यम से लोगों के सामने लाया जा सकता है। फिल्म निश्चित रूप से अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है और इसका इस्तेमाल सकारात्मक उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए।

Sunday, January 9

सीढ़ियों वाली बस्तियां.....

हम सिर्फ झुग्गियों को उजाड़ने की ही ख़बरें पढ़ते-सुनते रहते हैं। कुछ अमीर लोग झुग्गियों पर उनकी शहरनुमा खूबसूरत बीबी के चेहरे पर दाग़ समझते हैं। कुछ को बिल्डर और राजनेताओं के गठजोड़ से पैदा हुई नाजायज़ औलाद नज़र आती हैं झुग्गियां।दिल्ली के बादली गांव के जे जे क्लस्टर गया था। आशियाना और गंदगी का मणिकांचन योग दिखा। सरकार और निगम ने नाली की निकासी का कोई इंतज़ाम नहीं किया है। बिजली आई है। झुग्गियों की आबादी बढ़ी है दो कारण से। एक तो पहले के परिवार बड़े हुए हैं और दूसरे गरीब प्रवासी मज़दूरों का बड़ी संख्या में आना हुआ है। यहां भी किराया सिस्टम आया है। सारी झुग्गियां अब दुछत्ती हो रही हैं। सीढ़ी बनाने के लिए पैसा और जगह दोनों नहीं हैं। इसलिए प्रवासी किरायेदार मज़दूर या परिवार के लोग सीढ़ियों के ज़रिये ऊपर जाकर रहते हैं। सारे मकान एक दूसरे की बोझ से दबे हैं और टिके हैं।
एक तस्वीर में आप देखेंगे कि कैसे रास्ते के बीच में ऊपर एक कमरा बनाया गया है। हर घर के बाहर एक बांस की सीढ़ी आपको दिखेगी। कुछ घरों में रंगाई और टाइल्स भी नज़र आए। वो इसलिए कि इमारती मज़दूर बचे हुए सामानों से अपने घरों को सुन्दर बनाने की कोशिश कर लेते हैं। थ। ज़मीन पर जगह नहीं है इसलिए छत का कई प्रकार से इस्तमाल हो रहा है। यहां की औरतें जिन मेमसाहबों के यहां काम करती हैं उनके बच्चे के छोड़े टूटे खिलौने,कुर्सियां और चादर वगैरह से लगता है कि यहां का स्तर बढ़ा होगा। कुछ मेमसाहबों की पुरानी साड़ियों में बनी-ठनी नज़र आती हैं। सारी औरतें कामगार हैं,अथाह परिश्रम करती हैं और उस अनुपात में पौष्टिक आहार नहीं मिलता इसलिए इन बस्तियोंमें ज्यादातर औरतें छरहरी दिखेंगी। लेकिन सब किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं।...

DEEPIKA

Friday, January 7

दिल्ली में दिख गई ढेंकी.....

दिल्ली में दिख गई ढेंकी कभी-कभी घूमते-घूमते ग़ज़ब का अनुभव हो जाता है। बवाना की पुनर्वास कालोनी में ढेंकी केदर्शन हो गए। दिल्ली में ढेंकी के दर्शन हो जायेंगे कभी सोचा नहीं था। कुछ महीने पहले चंद्रभान प्रसाद कह रहे थे कि गांवों से जांता और ढेंकी ग़ायब हो चुके हैं। जांता पर गेहूं और चना पीसा जाता था। बल्कि पीसने की जगह दरने का इस्तमाल होता था। ढेंकी से धान की कूटाई होती थी। धीरे-धीरे। वक्त लंबा होता था तो औरतों ने ढेंकी कुटने के वक्त का संगीत भी रच डाला था। मेरी चचेरी बहन,फुआ और बड़ी मां को खूब गाते देखा है। हम भी जब उधर से गुज़रे तो दस पांच बार ढेंकी चला लिया करते थे। ढेंकी से निकलती चरचराहट की आवाज़ गांव घरों में दोपहर के वक्त के सन्नाटे को अपने तरीके से चीरा करती थी। हालांकि ढेंकी और जाता पूरी तरह से ग़ायब नहीं हुए हैं मगर गांवों में कम दिखने लगे हैं। मशीन की कूटाई-पिसाई ने न जाने कितने सैंकड़ों साल पुरानी इसतकनीक को ग़ायब कर दिया। ग़नीमत है समाप्त नहीं हो पाई ढेंकी। हम सोचते रहे कि दिल्ली जैसे महानगर में ढेंकीजाता का बात कौन करेगा। मगर महानगर में ढेंकी को देखकर ऐसे लगा जैसे बवाना में डायनासोर देख लिया या फिर अजगर निकल कर किसी के बिस्तरे पर आ गया हो। हैरानी। तीन चार लड़कियां उसी मस्त अंदाज़ मेंझूमते हुए चावल कूट रही थीं। अब यही से विश्लेषण सामाजिक टाइप होने लगता है। कई संस्कृतियों वाली पुनर्वास कालोनी में एक पुरानी तकनीक का जगह बनाना। कूटने वाली महिलाएं बांग्ला बोल रही थीं।कूट रही थीं चावल। धान नहीं। महिला ने बताया कि पचास किलो चावल पीसने में तीन घंटे लग जाते हैं। पीसे हुए चावल से वो बस्ती में इडली डोसा बेचती है। हद हो गई। कॉकटेल की। बंगाली औरतें,उत्तर भारतीय ढेंकी और कूटाई-पिसाई दक्षिण भारतीय व्यंजन के लिए। बंगाल में भी ढेंकी का इस्तमाल होता रहा है। बांग्ला में इसका कुछ नाम था जो मैं लिखते वक्त भूल गया। क्या पता यह टेक्नॉलजी पूरे भारत में ही हो। बल्कि होगी ही। बहुत आनंद आया इस ढेंकी को देखकर।
DEEPIKA

मैं और मेरी हिंदी

हिंदी अब भारत मात्र की भाषा नहीं है... नेताओं की बेईमानी के बाद भी प्रभु की कृपा से हिंदी विश्व भाषा है. हिंदी के महत्त्व को न स्वीकारना ऐसा ही है जैसे कोई आँख बंद कर सूर्य के महत्त्व को न माने. अनेक तमिलभाषी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं. तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में हिन्दी में प्रति वर्ष सैंकड़ों छात्र एम्.ए. और अनेक पीएच. डी. कर रहे हैं. हिन्दी भाषी प्रदेश में आकर लाखों तमिलभाषी हिन्दी बोलते, पढ़ते-लिखते हैं.
अन्य दक्षिणी प्रान्तों में भी ऐसी ही स्थिति है.
मुझे यह बताएँ लाखों हिन्दी भाषी दक्षिणी प्रांतों में नौकरी और व्यवसाय कर रहे हैं, बरसों से रह रहे हैं. उनमें से कितने किसी दक्षिणी भाषा का उपयोग करते हैं. दुःख है कि १% भी नहीं. त्रिभाषा सूत्र के अनुसार हर भारतीय को रह्स्त्र भाषा हिंदी, संपर्क भाषा अंग्रेजी तथा एक अन्य भाषा सीखनी थी. अगर हम हिंदीभाषियों ने दक्षिण की एक भाषा सीखी होती तो न केवल हमारा ज्ञान, आजीविका अवसर, लेखन क्षेत्र बढ़ता अपितु राष्ट्रीय एकता बढ़ती. भाषिक ज्ञान के नाम पर हम शून्यवत हैं. दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाती, जबकि हिन्दी मेरी माँ है तो वे मौसियाँ तो हैं.
यदि अपनी समस्त शिक्षा हिन्दी माध्यम से होने के बाद भी मैं शुद्ध हिन्दी नहीं लिख-बोल पाती , अगर मैं हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को पूरी तरह नहीं जानती  तो दोष तो मेरा ही है. मेरी अंग्रेजी में महारत भी  नहीं है. मुझे बुन्देली भी नहीं आती, पड़ोसी राज्यों की छतीसगढ़ी, भोजपुरी, अवधी, मागधी, बृज, भोजपुरी से भी मैं अनजान हूँ... मैं स्वतंत्र भारत में पैदा हुई उसके बावजूद मैं विभिन्न भाषाओ से दूर रही गलती केवल मेरी ही है.मेरी कक्षा में ऐसे विधार्थी भी है जो उर्दू, भोजपुरी, हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान रखते है. परन्तु मैं ही इन भाषाओ से अपरिचित हूँ मुझे इसका अफ़सोस है. देर से ही सही मुझे कम से कम इसका एहसास तो हुआ. आप भी हिंदी भाषा के साथ अन्य दक्षिणी भाषाओ को भी अपनाये ताकि प्रतिस्पर्धा कि इस दोड़ में आपको पछताना न पढ़े.
समय की चुनौती सामने है. हमने खुद को नहीं बदला तो भविष्य में हमारी भावी पीढियां हिंदी सीखने विदेश जायेंगी. आज विश्व का हर देश अपनी उच्च शिक्षा में हिन्दी की कक्षाएं, पाठ्यक्रम और शोध कार्य का बढ़ता जा रहा है और हम अपने आसपास रहने वालों को और बच्चों को हिन्दी से दूरकर अंग्रेजी में पढने के लिए  कहते  हैं. दोषी कौन? दोष किसका और कितना?,
कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.

Wednesday, January 5

सूरज

वह पढ़ने में बहुत अच्छा है. वह सोचता भी बहुत है. उसकी दो बहन है और वह सबसे बड़ा. बड़ा होने के नाते वह अपने परिवार के लिए बहुत कुछ करना चाहता है उसका नाम सूरज है. सूरज के पिता मज़दूर है, एक दिन काम करते वक़्त तीसरी मंजिल से एक कच्ची दीवार उनके ऊपर गिर गयी,दुर्भाग्यवश उनका दया हाथ टूट गया था. करीब दो महीने तक काम पर न जा पाने के कारण, सूरज के परिवार को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा. सूरज को वे दिन अब तक अच्छे से याद है जब माँ दुसरो के घरों के जूठे बर्तन धो कर घर चलाती थी.सूरज अपने घर की हालत देख कर कभी कुछ नही मांगता था, हालाँकि अपने दोस्तों की तरह अच्छे कपड़े पहनने का उसका बड़ा मन करता था. एक दिन वह घर के बाहर अकेला बैठा कुछ सोच रहा था, एकाएक उसकी नजर आँगन में एक छोटे से गड्ढे पर पड़ती है. गड्ढे में चींटियों का एक झुंड है. चींटियाँ लाइन से जा रही है वह चींटियों की लाइन को देखता हुआ बहुत दूर तक पहुँच जाता है जहाँ एक कीड़ा मरा पड़ा है. सभी चींटियाँ उस कीड़े का एक-एक अंश अपने मुंह में रख कर जा रही है. यह सब देख कर वह सोचता है की मैं भी इन चींटियों की तरह खूब मेहनत करूँगा और एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनूँगा... आज रात वह बिलकुल नहीं सोया,क्योंकि कल उसके स्कूल में पेपर थे.वह दंसवी में पढता है उसके सारे पेपर बहुत अच्छे गये थे ...वह बहुत खुश है और अपने पेपर की मार्कशीट लेने जा रहा है.मार्कशीट हाथ में लेते ही उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी ,वह बहुत रोया, उसे समझ नही आ रहा है कि वह क्या करे वह भागता हुआ गया और ट्रेन कि पटरी पर जा कर खड़ा हो गया. उधर से ट्रेन रफ़्तार में उसकी तरफ बढ़ रही थी....शाम को उसके घर पर एक दूसरी मार्कशीट आई,  जिसमे सूरज प्रथम आया था. मार्कशीट देखकर माँ बहुत खुश हुई . वह अभी तक सूरज की राह देख रही है पर वह घर वापस कभी नहीं आया... वह फैल वाली मार्कशीट किसी दुसरे सूरज की थी जो सूरज को मिली थी .........


''यदि हम जीवन में 'सूरज' के जाने पर रो पड़ेंगे तो आंसू भरी आँखें सितारें कैसे देख सकेंगी"

Tuesday, January 4

हमें रोटी देने वाले खुद भूखे मर रहे हैं

वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा देश को गुमराह करते हुए कहते हैं कि विश्व व्यापार संगठन के नियमो के तहत वह भारतीय किसानो को कोई नुकसान नही होने देंगे। लेकिन फिर भी किसानो की आत्महत्या की संख्या दिन प्रतिदिन क्यों बढती जा रही है इसका एक मुख्य कारण है बढता हुआ कर। भारत में किसान चिलचिलाती धूप में जानवरों की तरह काम करते हैं, फिर भी एक माह में प्रति किसान परिवार 2400  रूपये से अधिक नहीं कमा पाता। एक साल में यह राशि मात्र 28 हजार रूपये बैठती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के किसान गरीबी रेखा से काफी नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। अब अपनी सांस रोक लें। भारत में किसान मर रहे है, जबकि यूरोप में किसानो को 4000 रूपये प्रति हेक्टेयर प्रत्यक्ष अनुदान मिल रहा है। यह राशि भारत के किसानो की औसत आमदनी से लगभग दोगुनी है।